राम यदि वन में नहीं जाते तो क्या उनका चरित्र इतना उद्दात होता? नहीं होता। वे एक राजकुमार से राजा बनते। ऐसा राजा जो आदर्श की मिसाल कायम करे किन्तु उनका चरित्र वैसा व्यापक न होता जैसा वनगमन के उपरांत हुआ। वनवास ने ही राम को 'रम' बनाया। वे प्रकृति के पास गए तो प्रकृति ने भी उनको बहुत कुछ दियावनवासियों का अकूत स्नेह। यहाँ स्मरण रहे कि वनवासियों में चर-अचर सभी सम्मिलित हैं। पर्वत-कंदरा, नदी-सरोवर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे आदि इत्यादि। मानों कि संपूर्ण वन प्रांतर ही राममय हो गया था।
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पंडित विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार हुए हैं। उन्होंने लोकजीवन के राग रंगों पर ललित निबंध लिखे हैं। दीप पर्व पर यह लेख लिखते हुए मुझे उनकी एक रचना का स्मरण हो रहा है- "मेरे राम का मुकुट भीग रहा है।" इन पंक्तियों का स्मरण होते ही मेरे मनोमस्तिष्क में राम घुमड़ने लगे। मुकुट धारण करने वाले ही थे, राम कि उन्हें,अनायास वन हेतु गमन करना पड़ा। कुछ प्रहर पहले जिसे राजसिंहासन पर विराजमान होना था, अब, वह सन्यासी वेश धरे, नंगे पैर, पत्नी और भ्राता सहित जंगल की ओर प्रस्थान कर गया। 'घन घमंड नभ गरजत घोरा' मूसलाधार वर्षा प्रारंभ हो गयी है। कौशल्या का हृदय विदीर्ण हो रहा है। वन-प्रांतर में भटक रहे होंगे, मेरे राम-सीता और लक्ष्मण । वर्षा से भीग रहे होंगे, वे तीनों। कौशल्या के अंतर्मन की उस पीड़ा को अनुभूत कर अवध की नारियाँ गा रही हैं :
"मोरे राम का भीजै मुकुटवा,
लछिमन के पटुकवा।
मोरी सीता का भीजै सेनुरवा,
त राम घर लौटहिं।।"